पूज्यपाद त्रिदंडी स्वामी श्रीमद्भक्ति श्रीरूप सिद्धांती महाराज की तिरोभाव तिथि के उपलक्ष में
पूज्यपाद त्रिदंडी स्वामी श्रीमद्भक्ति श्रीरूप सिद्धांती महाराज ने गत ८ पद्मनाभ (४९९ गौराब्द), १७ अश्विन (१३९२ बंगाब्द), ४ अक्टूबर (१९८५ ई.) शुक्रवार, कृष्ण षष्ठी तिथि को पूर्वाह्न १:१० बजे, २९ हाजरा रोड स्थित ‘श्रीसारस्वत गौडीय आसन ओ मिशन’ नामक अपने मठ में श्री श्री गुरु गौरांग गन्धर्विका गिरिधारी जिउ के श्रीपादपद्म का स्मरण करते करते, उनके विरह में विह्वल मठ-सेवकों के सम्मिलित उच्च नाम-संकीर्तन के बिच अपने इष्टदेव के अशोक अभय-अमृताधर श्रीपादपद्मों का चिराश्रय प्राप्त किया। एक-एक करके, हमारे लगभग सभी गुरु भाई नित्यलीला प्रविष्ट श्री गुरुपादपद्म के सान्निध्य में महाप्रयाण कर रहे हैं। एक–एक जन एक-एक अप्राकृत-गुण संपन्न अतिमर्त्य पुरुष थे। उनके रिक्त स्थान को भरने के लिए कोई अन्य उपयुक्त व्यक्ति नहीं है। इसीलिए गौड़ीय वैष्णव-जगत आज धीरे-धीरे रत्नहीन होता जा रहा है। हमारे पूज्यपाद सिद्धांती महाराज पृथ्वी देवी के एक अति-उज्जवल रत्न के समान थे।
परमराध्य प्रभुपाद की एक विशेष इच्छा थी: गौड़ीय वेदांताचार्य श्रीमद बलदेव विद्याभूषणपाद के श्रीगोविन्द भाष्य में वेदांत दर्शन एवं ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुंडक-मांडूक्य-ऐतरेय-तैत्तिरीय-छांदोग्य ब्रुहादारण्यक-श्वेताश्वतर और गोपालतापनी इत्यादि उपनिषदों का अन्वय, बंगाली अनुवाद और गौड़ीय भाष्य सहित प्रचार करना। पूज्यपाद सिद्धांती महाराज ने परमराध्य श्री श्रील प्रभुपाद के इस मनोवभिष्ट को पूर्ण के लिए कार्यरत होकर गौड़ीय वैष्णवसमाज की बड़ी सेवा की और प्रभुपाद के विशेष कृपापात्र हुए।
पूज्यपाद महाराज ने १३१३ बंगाब्द के ५वे कार्तिक, ई. १९०६ की २२ अक्टूबर, कार्तिक शुक्ला पंचमी तिथि में पूर्वबंग के बरिसाल जिले के एक सम्मानित भक्त परिवार में प्रकट लीला की, और एक अनुमान अनुसार १३३१ बंगाब्द के माघ मास की प्रथमा तिथी में कलकत्ता के श्री गौडीय मठ में परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के चरण कमलों में शुभागमन कर ई.१९२४ के मार्च मास में श्री गौरपूर्णिमा के शुभ अवसर पर उनसे महामंत्र एवं मंत्र-दीक्षा प्राप्त की। कृष्ण के प्रति अपने अनुराग के कारण वे बहुत छोटी आयु में ही मठ में आ गए थे, इसलिए उन्हें गुरु-वर्ग के कहने पर अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए कुछ समय के लिए घर लौटना पड़ा। बाद में शीघ्र ही अपनी पढाई पूरी कर १३३४ बंगाब्द, ई. १९२७ वर्ष में, अनुमान अनुसार फाल्गुन या फरवरी मास में वे मठ में लौट आए और उन्होंने स्वयं को श्री गुरुपादपद्म की सेवा पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। उनके निष्कपट सेवा प्रयासों से श्री गुरुपादपद्म और उनके अनुगत वैष्णव उनके प्रति बहुत प्रसन्न हुए। श्रीगुरुपादपद्म की प्रसन्नता के कारण, उन्हें १८५४ शकाब्द में ‘उपदेशक’, १८५५ में ‘महोपदेशक’ और १८५७ में ‘विद्या-बागीश’—श्रीगौर आशीर्वाद स्वरूप की उपाधि से सम्मानित किया गया। ब्रह्मचारी अवस्था में उनका नाम श्रीसिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी था। उन्होंने प्रवीन और प्राचीन त्रिदंडी संन्यासी जैसे कि त्रिदिंडीस्वामी श्रीमद्भक्तिप्रदीप तीर्थ महाराज, त्रिदंडीस्वामी श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज, त्रिदंडीस्वामी श्रीमक्तिरक्षक श्रीधर महाराज, त्रिदंडिस्वामी श्रीमद्भक्तिहदय वन महाराज और कई अन्य प्रमुख त्रिदंडी संन्यासीयों के साथ बंग, विहार, उत्कल, मद्रास, आन्ध्रप्रदेश एवं पश्चिम भारत के विभिन्न स्थानों में प्रचार-कार्यों के लिए भ्रमण किया। उन्होंने नित्यलीला प्रविष्ट त्रिदिंडीस्वामी श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज (श्रीला प्रभुपाद के प्रकट-काल में ब्रह्मचारी नाम प्रखर वक्ता श्रीपाद हयग्रिव ब्रह्मचारी प्रभु) के साथ भी कई स्थानों पर प्रचार-कार्य किया। श्री हरि-गुरु-वैष्णव की कृपा से धीरे-धीरे वे एक प्रमुख वक्ता बन गए। निर्भयता से शास्त्र-सिद्धान्त-युक्त तेजस्वी हरिकथा कीर्तन करने कारण गुणग्राही और सारग्राही श्रोतागण उनके भाषण से बहुत आकर्षित हुए। हालांकि कुछ अगुणग्राही और असारग्राही व्यक्ति उनके अप-स्वार्थ में आघात होने के कारण कुप्रचार में लगे हुए थे, किन्तु महराज कभी भी वास्तव कथा कीर्तन, श्रोतवाणी का अनुशीलन करने से पीछे नहीं हटे, जिस कारण उन्होंने विपुल प्रमाण में परमाराध्य प्रभुपाद का कृपा-आशीर्वाद प्राप्त किया।
सन् १९४१ में, पूज्यपाद सिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी प्रभु ने हमारे एक सतीर्थ गुरु भाई से त्रिदंड संन्यास वेश ग्रहण कर त्रिदंडी स्वामी श्रीमद भक्ति श्रीरूप सिद्धान्ति महाराज नाम धारण किया। कलकत्ता में श्रीसारस्वत आसन और मिशन के अतिरिक्त, श्रीधाम नवद्वीप और श्रीक्षेत्र में उनके दो अन्य मठ हैं। प्रत्येक मठ में श्री श्री गुरु गौरांग-राधागोविंद जीउ की अपूर्व विग्रह सेवा और मठ की दीवारों पर शास्त्रीय शिक्षाओं सह श्री गौरलीला, श्री कृष्णलीला और श्री रामलीला के अपूर्व मूर्ति दर्शन विद्यमान हैं। उनके दर्शन से सारग्राही दर्शकों को बहु शास्त्र-सिद्धांत युक्त ज्ञान प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। आज भी वे वैसे ही दीप्तिमान हैं, किन्तु उनके दर्शन से पूज्यपाद महाराज के अदर्शन के कारण हृदय उनके विरह में कातर हो उठता है।
“कृपा करी” कृष्ण मोदेर दियाछिल संग
स्वतन्त्र कृष्णेर इच्छा, हईल संग भंग।